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गुनगुन शाम को पार्क में अपने हमउम्र दोस्तों के साथ खेलकर लौटी। उसे जोरों की भूख लगी थी। मम्मी खाना तैयार कर रही थीं। चाचाजी बाजार से रसगुल्ले लेकर आए थे। मम्मी ने उसे प्लेट में  रसगुल्ले दिए। रसगुल्ले लेकर गुनगुन पीछे खुले आंगन में चली आई। खाते-खाते रसगुल्ले के रस की कुछ बूंदें नीचे गिर गई थीं। थोड़ी देर में ही वहां नन्ही चींटियों की फौज आ गई। गुनगुन उत्सुकता से उन्हें देखने लगी।  तभी पीछे-पीछे उसके चाचाजी वहां आ गए। चाचाजी को देखकर गुनगुन ने पूछा, “चाचाजी, इन्हें कैसे पता चला कि यहां रसगुल्ले का रस गिरा हुआ है? ये तो कहीं भी नहीं थीं।” “वैसे ही जैसे तुम घर में रखी मिठाई तक पहुंच जाती हो गुनगुन।” चाचाजी ने हंसकर चिढ़ाते हुए कहा। गुनगुन ने नाराज होने का बहाना किया, तो उन्होंने कहा, “प्रकृति ने इन्हें बहुत अच्छी सूंघने की शक्ति दी है। इससे ये बहुत दूर से ही पता लगा लेती हैं कि इनका खाना कहां है और फिर अपने समूह के साथ पहुंच जाती हैं।” “पर इन्हें अपने घर का इतना लंबा रास्ता कैसे याद रहता है? ये तो कितनी छोटी सी हैं।” गुनगुन ने आश्चर्य से पूछा। “इनका छोटा सा दिमाग बहुत तेज होता है। रोशनी, याददाश्त और गंध की मदद से ये अपना रास्ता खोज लेती हैं। इनमें से कुछ प्रजातियां चलते समय एक विशेष रासायनिक पदार्थ छोड़ती चलती हैं, जिसकी गंध से इन्हें आसानी से रास्ता पता चल जाता है। लेकिन जो चींटियां रेगिस्तान में रहती हैं, वे ऐसा नहीं करतीं। वे रास्तों की तसवीरें याद करती हुई चलती हैं।” चाचा ने कहा। “अरे वाह! मैंने मिट्टी में इनका घर देखा भी है। उसमें कौन-कौन रहते हैं और सब क्या-क्या करते हैं?” गुनगुन ने पूछा। “चींटिया भी हमारी ही तरह सामाजिक प्राणी हैं। इनका समाज भी नियमों पर चलता है। ये जमीन में सुरंग की तरह खोदकर घर बनाती हैं। कभी चट्टानों में, पेड़ों की छाल में, दीवारों में और कुछ अलग प्रजाति की चींटियां पेड़ों के पत्तों को सिलकर भी रहती हैं। इनके घर में सबसे बड़ी रानी चींटी होती हैं, जिनके शुरुआत में पंख होते हैं। यह ढेर सारे अंडे देती हैं। रानी चींटी के अलावा नर चींटियां और श्रमिक चींटियां भी होती हैं। नर चींटियां और रानी चींटी सामान्यत: बाहर नजर नहीं आतीं। नर चींटियों का जीवन छोटा होता है। जिन्हें हम देख रहे हैं, ये श्रमिक चींटियां हैं। इनका काम खाना लाना, बच्चों की देखभाल करना, कॉलोनीनुमा घर बनाना और साफ-सफाई रखना होता है। इनमें से कुछ रक्षक चींटियां भी होती हैं, जो घर की देखभाल करती हैं।” चाचाजी ने बताया। “अरे वाह! इतनी छोटी सी, पर सब कुछ इतना व्यवस्थित! चाचा, जैसे हम मनुष्य लड़ते हैं, क्या वैसे इनमें भी झगड़ा होता है?” गुनगुन ने कुतूहल से भरकर पूछा। “हां, कभी-कभी दूसरी कॉलोनी की चींटियों से झगड़ा होता है। इन सबकी तय सीमा होती है। लेकिन बढ़ते परिवार के साथ इन्हें अपनी सीमा भी बढ़ानी होती है। इसी बात पर इनका कभी-कभी झगड़ा हो जाता है और फिर वह कई घंटों और कभी-कभी हफ्ते भर तक भी चलता है। इनकी लड़ाई बहुत खतरनाक होती हैं, जिसमें ये मर भी जाती हैं।” चाचा ने गंभीरता से जवाब दिया। “ओह , यह तो बुरी बात है।” गुनगुन थोड़ा उदास होकर बोली। “हां, है तो। हर प्राणी में कुछ अच्छाइयां और बुराइयां होती हैं। चींटियों में भी ऐसा ही है। जैसे कुछ प्रजातियां किसी और कॉलोनी से झगड़ा होने पर और जीत जाने पर, उनके लार्वा (बच्चों) को ले आती हैं और उन्हें गुलाम बना लेती हैं।” चाचा ने कहा। “ओह! पर ये अपनी साथी चींटियों को पहचानती कैसे हैं चाचाजी? देखने में ये सब तो एक सी होती हैं।” गुनगुन ने पूछा।  “दो तरह से ये एक -दूसरे को पहचानती हैं। जैसा कि मैंने पहले बताया कि इनके शरीर से एक हारमोन निकलता है, जिसे फेरोमोन कहते हैं। एक-दूसरे के फेरोमोन को सूंघकर ये संपर्क बनाए रखती हैं। तुम्हें पता है, अगर हम इनकी कतार के रास्ते को पानी से पोंछ दें तो पीछे आने वाली चींटियां भ्रमित हो जाती हैं, क्योंकि आगे वाली चींटियों की गंध ही समाप्त हो जाती है। इनके संपर्क का दूसरा तरीका होता है, एक-दूसरे के एंटीना को छूना। जो तुमने कभी देखा भी होगा।” चाचा ने उत्तर दिया।  “हां चाचाजी, मैं हमेशा सोचती थी कि ये एंटीना को छूकर करती क्या हैं? ये पास-पास आकर आपस में बातें करने लगती थीं।” गुनगुन ने हंसते हुए कहा और फिर पूछा, “अच्छा चाचाजी, ये क्या हमारी आवाज सुन सकती हैं?” “इनके कान नहीं होते गुनगुन। पर ये ध्वनि के कंपन को महसूस करती हैं। आसपास की आवाजें महसूस करने के लिए इनके घुटने और पांव में सेंसर लगे होते हैं।” चाचा ने जवाब दिया।  “और भी कुछ बताइए न चाचाजी इनके बारे में।” गुनगुन ने उत्सुकता से पूछा।  चाचाजी ने सोचते हुए कहा, “अच्छा, तुम्हें पता है इनके पेट के दो हिस्से होते हैं। एक में ये खुद का खाना खाती हैं और दूसरे में रानी चींटी, बच्चों और अन्य सदस्यों के लिए खाना रखकर ले जाती हैं। तुमने यह भी देखा होगा कि खाने को पकड़े-पकड़े कभी-कभी ये उलटा भी चलती हैं। अपने भार से कई गुना ज्यादा भार ये उठा लेती हैं। ये उलटे कदम चलकर भी घर पहुंच सकती हैं। चींटियों की बहुत सारी प्रजातियां होती हैं। सभी के गुणों और व्यवहार में थोड़ा-बहुत अंतर होता है। अभी और कई बातें वैज्ञानिक जानने में जुटे हैं। हो सकता है कि आगे कुछ नई जानकारियां मिलें और कुछ पुरानी बदलें भी।” चाचाजी ने विस्तार से बताया।  गुनगुन कुछ सोचते हुए बोली, “चाचाजी, चींटियां कितनी समझदार होती हैं। काश! हम इनसे कुछ सीखते और फिर किसी भी मनुष्य को भूखा नहीं रहना पड़ता। मैंने यह भी देखा है कि ये कभी भी हार नहीं मानतीं। हमारी क्लास का एक लड़का गर्वित चींटियों को बहुत परेशान करता है। वह बार-बार चींटी का रास्ता रोकता है। लेकिन ये कभी भी प्रयास नहीं छोड़तीं और घूम-फिरकर अपना रास्ता पकड़ ही लेती हैं। बस ये काट भी लेती हैं कभी-कभी, पर वह तो ये अपनी रक्षा के लिए करती हंै न!” गुनगुन ने मासूमियत से कहा।  “हमें यही तो करना होता है गुनगुन, सभी की अच्छाइयों से कुछ सीखना। और हमारी गुनगुन तो और भी समझदार है, तभी तो इतनी प्यारी बातें करती है।” चाचा ने प्यार से कहा। मां ने गुनगुन को खाने के लिए आवाज दी, तो गुनगुन मन ही मन अपनी दोस्त चींटियों से कभी-कभी मिलने और खाना लाने का वादा कर, चाचाजी के साथ रसोई में चली आई। 

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