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एक बार राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम से मजाक किया। उन्होंने तेनालीराम से कहा कि वह सारे दरबार को एक शानदार भोज दे। लेकिन तेनालीराम समझ गया कि महाराज उसे बेवकूफ बनाना चाहते हैं। तब भी उसने अपने चेहरे पर घबराहट नहीं आने दी। उसने कहा, ‘‘महाराज, आप कल सवेरे सारे दरबारियों सहित भोजन के लिए आमंत्रित हैं।’’ निमंत्रण देने के एक घंटे बाद वह महाराज के पास फिर पहुंचा और बोला, ‘‘महाराज, मेरे घर इतने बरतन नहीं हैं कि मैं कई सौ लोगों को खाना खिला सकूं। यदि सारे अतिथि अपने साथ बरतन ले आएं, तो मुझे बड़ी सुविधा होगी।’’ राजा ने उसकी बात मान ली। दूसरे दिन दरबारियों सहित राजा कृष्णदेव तेनालीराम के घर पहुंचे। सभी अपने-अपने घरों से सोने-चांदी के कीमती बरतन लेकर आए। जब सब भोजन करने लगे, तो तेनालीराम अपनी पत्नी कमला के साथ सबको पंखा झलने लगा। सबने तेनालीराम के भोजन की बड़ी तारीफ की। उत्तर में तेनालीराम ने कहा, ‘‘महाराज, अन्न आपका, पुण्य आपका। अपनी तो बस हवा-हवा है।’’ यह कहकर तेनालीराम पंखा झलने लगा। भोजन करके सब उठने लगे, तो तेनालीराम ने हाथ जोड़कर कहा, ‘‘आप जूठे बरतन यहीं पड़े रहने दें। मैं उन्हें धुलवाकर आपके घरों में पहुंचा दूंगा।’’ अंधा क्या चाहे, दो आंखें। लोग तो यह चाहते ही थे। वे सब खुशी-खुशी अपने-अपने बरतन छोड़कर चले गए। लोगों ने एक दो-दिन अपने बरतनों की राह देखी। पर जब पूरा सप्ताह बीत गया, तो उनका माथा ठनका। राजा ने तेनालीराम को दरबार में बुलाकर उससे बरतनों के बारे में पूछा। तेनालीराम ने बड़ी गंभीरता से कहा, ‘‘महाराज, आप लोगों के बरतन नगर सेठ के घर पहुंच गए हैं। मैंने भोज के लिए उसी की दुकान से सामान खरीदा था। आप चाहें तो उसका पैसा चुकाकर अपने-अपने बरतन मंगवा लें।’’ सुनते ही सारे दरबारियों के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। राजा ने बड़ी हैरानी से पूछा, ‘‘क्यों?’’ तेनालीराम ने हंसते हुए कहा, ‘‘महाराज, मैंने तो पहले ही कह दिया था कि अन्न आपका, पुण्य आपका, अपनी तो बस हवा-हवा है।’’ इस वाक्य का असल अर्थ राजा ने समझा, तो उन्होंने सिर पीट लिया। उसके बाद राजा ने तेनालीराम को बेवकूफ बनाने की बात कभी नहीं सोची।

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